भारत के इतिहास में कई बार ऐसे मौके आए जब प्रकृति की बेरुखी ने इंसान को उसके अस्तित्व की परीक्षा में डाल दिया। लेकिन साल 1899 की वह काली छाया, जिसे आज हम 'छपनिया अकाल' (अथवा सन् 1956 विक्रमी के आधार पर छपनिया कहा गया) के नाम से जानते हैं, राजस्थान और उत्तर भारत के कई हिस्सों के लिए मानो काल का रूप लेकर आई थी। यह सिर्फ एक अकाल नहीं था – यह एक सामाजिक, आर्थिक और मानवीय आपदा थी, जिसने हजारों नहीं, लाखों जिंदगियों को निगल लिया। आइए जानते हैं उस बेरहम साल की पूरी कहानी।
वर्ष 1899: जब आसमान ने बरसना बंद कर दिया
वर्ष 1899 में जब मॉनसून का समय आया, तो लोगों की आंखें आसमान की ओर थीं – खेत सूख चुके थे, कुएं खाली हो चुके थे, और जानवर चरने की जगह ढूंढते-ढूंढते हांफ चुके थे। पर इस बार बरसात नहीं आई। कुछ जगहों पर हल्की बूंदाबांदी हुई भी, तो वह मात्र भ्रम का आभास बनकर रह गई। राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में पानी की एक-एक बूंद के लिए लोग तरसने लगे। यही वह समय था जब 'छपनिया अकाल' की शुरुआत हुई।
"छपनिया" क्यों कहा गया?
यह अकाल विक्रम संवत 1956 में पड़ा था, जिसे आम बोलचाल में 'संवत छप्पन' कहा जाता था। इसीलिए इस त्रासदी को 'छपनिया अकाल' कहा गया। हालांकि अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार यह साल 1899-1900 के बीच था, लेकिन ग्रामीण स्मृति और लोकगीतों में यह "छपनिया" के नाम से अमर हो गया।
अनाज की कीमतें आसमान पर, पेट में सिर्फ हवा
जब खेतों ने उपज देना बंद किया, तो बाजारों ने बेरहम शक्ल ले ली। अनाज, जो कभी आम आदमी की पहुंच में हुआ करता था, अचानक अमीरों की तिजोरियों में बंद हो गया। एक मन बाजरे की कीमत उस समय ₹10 से ₹15 तक पहुंच गई, जो उस दौर में एक मजदूर की महीनेभर की कमाई से भी अधिक थी। गरीब किसान अपने घर का बर्तन, मवेशी, और यहां तक कि ज़मीन भी बेचकर एक वक्त की रोटी जुटाने की कोशिश में लगे थे।
भुखमरी और महामारी: दोहरी मार
भूख अपने आप में एक पीड़ा है, पर जब इसके साथ बीमारी भी साथ आ जाए, तो हालात नर्क से भी बदतर हो जाते हैं। 1899 के इस अकाल में सिर्फ भुखमरी ही नहीं फैली, बल्कि हैजा, प्लेग, और अन्य संक्रामक बीमारियों ने भी कहर ढाया। सरकारी आंकड़ों के अनुसार लाखों लोग मारे गए, पर लोक कथाओं में यह संख्या कहीं अधिक बताई जाती है।
जानवरों की स्थिति भी भयावह
गांवों में सिर्फ इंसान ही नहीं, जानवर भी इस त्रासदी के शिकार हुए। चारे की कमी और पानी की अनुपलब्धता ने लाखों मवेशियों को मौत के घाट उतार दिया। बैल, जो किसान का सबसे बड़ा साथी होता है, हड्डियों का ढांचा बनकर गिरते जा रहे थे। गाय-भैंसें भूख से तड़प-तड़प कर मर रही थीं।
पलायन की त्रासदी
इस अकाल ने लोगों को उनके गांव-घरों से पलायन करने पर मजबूर कर दिया। हजारों परिवार खाने की तलाश में अपने घरों को छोड़कर शहरों या दूसरे राज्यों की ओर निकल पड़े। कुछ लोग ब्रिटिश सरकार के बनाए राहत शिविरों में पहुंचे, तो कुछ रास्ते में ही दम तोड़ बैठे। राजस्थान, गुजरात और मध्य भारत के कई क्षेत्रों से यह पलायन इतना भारी था कि कई गांव वीरान हो गए।
ब्रिटिश शासन की भूमिका
अकाल के दौरान ब्रिटिश सरकार ने राहत कार्य चलाने की कोशिश तो की, परंतु वह नाकाफी थी। सरकार द्वारा खोदे गए राहत कार्यों जैसे सड़क, नहर और कुएं खुदाई जैसी योजनाएं बहुत कम लोगों तक पहुंच पाईं। साथ ही, अनाज के भंडारण और वितरण में भी भ्रष्टाचार और लापरवाही ने स्थिति को और बिगाड़ दिया। ब्रिटिश नीतियों की आलोचना हुई, लेकिन असली कीमत जनता ने चुकाई।
लोकगीतों और कहानियों में जिंदा है दर्द
'छपनिया अकाल' की स्मृति आज भी राजस्थान और आस-पास के ग्रामीण इलाकों के लोकगीतों में जीवित है। बूढ़ी दादियां आज भी उन दिनों को याद करके कहती हैं – "छपनिया साल में तो घर-घर चूल्हा ठंडा पड़ा था।" बच्चों को सिखाया जाता था कि भोजन बर्बाद मत करो – क्योंकि किसी समय लोगों ने मिट्टी खाकर भी पेट भरा है।
इतिहास से सीख
1899 का छपनिया अकाल हमें याद दिलाता है कि जलवायु परिवर्तन, अनियंत्रित शासकीय नीति और सामाजिक असमानता जब एक साथ सिर उठाते हैं, तो वे कितनी भयावह त्रासदी ला सकते हैं। आज जब हम तकनीकी रूप से संपन्न युग में जी रहे हैं, तब भी यह जरूरी है कि हम जल संरक्षण, कृषि सुदृढ़ीकरण और आपदा प्रबंधन को लेकर गंभीर रहें।
1899 का वो बेरहम साल सिर्फ इतिहास की एक तारीख नहीं, बल्कि मानवीय पीड़ा, संघर्ष और जिजीविषा की एक जीवंत मिसाल है। छपनिया अकाल हमें सिखाता है कि प्रकृति का सम्मान करना और संकट के समय एकजुटता दिखाना मानवता की सबसे बड़ी ज़रूरत है।
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