नेपाल की राजधानी काठमांडू की सड़कों पर पूर्व नरेश ज्ञानेंद्र शाह का नाम गूंज रहा है. साल 2006 में भी ये नाम वहां की सड़कों पर गूंजा था और साल 2025 में भी ये नाम वहां गूंज रहा है.
तब भी सड़कों पर प्रदर्शनकारी थे और बीते दिनों भी सड़कों पर प्रदर्शनकारी दिखे. मगर, वजह दोनों बार अलग-अलग है.
जहां 2006 में बड़ी तादाद में लोग राजशाही समाप्त करने की मांग कर रहे थे, वहीं 2025 में लोग राजशाही की वापसी की मांग कर रहे हैं.
हाल के प्रदर्शनों के चलते सैकड़ों लोग घायल हुए हैं. मांग सिर्फ़ राजशाही की वापसी की नहीं, बल्कि देश को वापस हिंदू राष्ट्र घोषित करने की भी हो रही है.
पड़ोसी देश भारत के लिए ये मांग कई कूटनीतिक प्रश्न खड़े करती है.
नेपाल में आख़िर क्या हुआ कि राजशाही की मांग सड़कों पर आ गई है, कितने बड़े इलाक़े से उठी है ये मांग, भारत के लिए इसके क्या मायने हैं?
चीन के साथ नेपाल के संबंधों को देखते हुए इस क्षेत्र के लिए इसे कैसे देखा जाना चाहिए, अगर राजशाही लौटी भी तो इसका क्या कोई फ़ायदा होगा?
बीबीसी हिन्दी के साप्ताहिक कार्यक्रम, 'द लेंस' में कलेक्टिव न्यूज़रूम के डायरेक्टर ऑफ़ जर्नलिज़म मुकेश शर्मा ने इन्हीं सवालों पर चर्चा की.
इन मुद्दों पर चर्चा के लिए हाल ही में नेपाल से लौटे बीबीसी संवाददाता दिलनवाज़ पाशा, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन की फ़ेलो शिवम शेखावत और नेपाल की राजधानी काठमांडू में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार युबराज घिमिरे शामिल हुए.
ये भी पढ़ेंनेपाल में इन दिनों राजशाही के समर्थन में प्रदर्शन हो रहा है. वार्षिक संबोधन सुर्खियों में बना हुआ है.
नेपाल की अर्थव्यवस्था और शासन व्यवस्था की स्थिति ख़राब है. बेहतर जीवन और रोज़गार की तलाश में युवा दूसरे देशों का रुख़ कर रहे हैं.
नेपाल में फैली इसी अव्यवस्था को मुद्दा बनाकर राजशाही समर्थक फिर से राजशाही और हिंदू राष्ट्र के समर्थन में प्रदर्शन कर रहे हैं.
इन विरोध प्रदर्शन के पीछे की वजहों के बारे में बीबीसी संवाददाता दिलनवाज़ पाशा ने कहा, "नेपाल में आप किसी से भी बात करें तो एक चीज़ साफ़ समझ में आती है कि नेपाल में जो व्यवस्था है, उसे लेकर कहीं न कहीं गहरी निराशा है. भ्रष्टाचार है, अव्यवस्था है, जिस तरह से सरकार को काम करना चाहिए था, वह नहीं हो पाया है."
उन्होंने बताया, "काठमांडू में जब हमने अलग-अलग जगहों पर लोगों से बातचीत की तो सभी की बातों में एक बात कॉमन थी कि यहां की राजनीतिक व्यवस्था अस्थिर है. लोगों का कहना था कि हमारे यहां इतने मंत्री हैं ,लेकिन भ्रष्टाचार ख़त्म नहीं हो पा रहा है."
उन्होंने कहा, "इसी बीच में ये आवाज़ें भी सुनाई देती हैं कि इससे बेहतर तो राजशाही का दौर था."

राजशाही की वापसी को लेकर वरिष्ठ पत्रकार युबराज घिमिरे ने कहा, "साल 2006 में संसद को रिवाइव किया गया था, जो पहले ही समाप्त हो चुकी थी. इस संसद ने अपने अधिकार से बाहर जाकर बिना किसी बहस के देश को धर्मनिरपेक्ष भी घोषित किया और राजशाही को भी समाप्त कर दिया."
उन्होंने बताया, "बिना किसी बहस के जब राजा सत्ता से बाहर गए, तो लोगों की उनके साथ सहानुभूति भी थी और शायद राजनीतिक पार्टियों के पास वो अधिकार नहीं थे."
उन्होंने कहा कि नेपाल में भ्रष्टाचार और अव्यवस्था फैली हुई है. ऐसे में लोगों को लगता है कि एक ऐसी ताक़त होनी चाहिए, जो उन पर रोक लगा सके.
उन्होंने बताया, "नेपाल में अभी जो राष्ट्रपति हैं वह राष्ट्रपति से ज़्यादा पार्टी सदस्य के रूप में काम कर रहे हैं, जिससे वह जुड़े हुए हैं. मुझे लगता है कि इन्हीं सब कारणों से यह स्थिति बनी है."
ये भी पढ़ेंऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन की फेलो शिवम शेखावत ने कहा, "नेपाल में अशांति और अस्थिरता भारत के हित में नहीं है. भारत हमेशा ही इस पक्ष में रहा है कि नेपाल के भीतर सरकार का फ़ैसला वहां के लोग और राजनीतिज्ञ करें."
उन्होंने कहा, "भारत और नेपाल का रिश्ता पुराना है. इसमें यह मायने नहीं रखता है कि सत्ता में कौन है? राजशाही के साथ अच्छा संबंध था, लेकिन पिछले दशक में देखें तो दोनों देशों के रिश्तों में प्रगाढ़ता आई है. कुछ मामलों पर कभी-कभी तनाव देखने को मिलता है लेकिन दोनों तरफ़ ही लोकतंत्र है, तो इन मामलों को ख़त्म करने के लिए ज़्यादा जगह मिलती है."
उन्होंने कहा कि नेपाल की सत्ता में कोई भी आए, लेकिन भारत की यह ज़रूरत है कि वह उनके साथ काम करे.
भारत के हित में यही है कि वहां शांति रहे और जिन मुद्दों पर वहां अशांति हो रही है, वहां की सरकार उन पर ध्यान दे.

नेपाल की विदेश नीति को लेकर वरिष्ठ पत्रकार युबराज घिमिरे ने कहा, "नेपाल एकीकरण के बाद मौजूदा आकार में आया है. एक तरफ चीन है, तो दूसरी तरफ भारत है. ऐसे में भारत और चीन से संतुलित संबंध बनाए रखने के लिए पृथ्वी नारायण शाह ने विदेश नीति का एक मौलिक सिद्धांत बनाया था."
उन्होंने कहा, "हालांकि, व्यावहारिक रूप से नेपाल की भारत के साथ ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और व्यापारिक रूप से निकटता ज़्यादा रही. दोनों तरफ़ से लोगों का आना जाना था. इसके कारण नेपाल हमेशा भारत के साथ ज़्यादा बना रहा."
उन्होंने कहा कि आमतौर पर किसी झगड़े में एक देश दूसरे देश का प्रयोग करते हैं, लेकिन जब भी चीन और भारत के बीच सीधे कुछ हुआ, तो नेपाल की राजशाही ने भारत का साथ दिया.
हालांकि, साल 2006 में जो राजनीतिक बदलाव हुए उसके बाद चीन का निवेश बढ़ा है. इससे प्रभाव भी बढ़ता है.
उन्होंने कहा, "चीन को लगता है कि नेपाल में साम्यवादी सरकार आती है, तो उन्हें फ़ायदा होगा लेकिन नेपाल की घोषित नीति यही है कि एक का इस्तेमाल दूसरे देश के ख़िलाफ़ नहीं होना चाहिए. साम्यवादियों को लेकर पुरानी सोच यह है कि वह चीन के साथ हैं, लेकिन वास्तविकता में ये नहीं है."
ये भी पढ़ेंइस सवाल पर दिलनवाज़ पाशा ने कहा, "नेपाल में बहुत कम ही लोग मिलेंगे, जो यह न चाहते हों कि नेपाल फिर से हिंदू राष्ट्र न बने. आप जब बातचीत करते हैं, तो पता चलता है कि इसे लेकर लोगों में गहरा भावनात्मक जुड़ाव है. नेपाल में लोग इस बात पर गर्व करते हैं कि वह एक हिंदू राष्ट्र थे और यह उनकी पहचान थी, लेकिन यह छीन ली गई."
उन्होंने कहा, "यह मामला सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान से जुड़ा हुआ दिखाई देता है. इस पहचान को लोग वापस चाहते हैं."
उन्होंने कहा कि वहां कुछ मुस्लिमों से भी बात हुई तो उन्होंने कहा कि उन्हें कोई परेशानी नहीं है, यह पहले भी हिंदू राष्ट्र था, तो हमें कोई परेशानी नहीं थी.
उन्होंने कहा, "हिंदू राष्ट्र की बात करें तो इस पुरानी पहचान को वापस लाने की मांग बढ़ रही है. राजशाही के लिए जो पार्टियां आंदोलन कर रही हैं, वह इस बात को समझ रही हैं कि हिंदू राष्ट्र के लिए समर्थन ज़्यादा है. यही वजह है कि वह हिंदू राष्ट्र की मांग को आगे कर रहे हैं."

राजशाही आने पर निवेश पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर शिवम शेखावत ने कहा, "इससे निवेशकों का मनोबल गिरेगा. लोकतंत्र में कई संस्थाए काम करती हैं. यह संतुलन स्थापित करने का काम करती हैं, इनकी जवाबदेही होती है. वहीं, राजशाही का अनुभव रहा है कि यहां शक्ति केंद्रित हो जाती है."
उन्होंने कहा, "नेपाल में नीतियां विफल हैं. आमजन परेशान हैं, नौकरियां नहीं हैं, युवा बाहर जा रहे हैं और अर्थव्यवस्था बाहर से आने वाले धन पर निर्भर है. इस प्रदर्शन का कारण अर्थव्यवस्था से भी है. कई सालों से नेपाल की अर्थव्यवस्था सही नहीं है और वह एफएटीएफ की ग्रे लिस्ट में भी आ गया था. इन्वेस्टमेंट समिट भी आशा के अनुरूप सफल नहीं रही."
उन्होंने कहा कि ऐसे समय में अगर राजनीतिक बदलाव होता है, तो निवेशकों का भरोसा लौटने में समय लगेगा. यह इस बात पर भी निर्भर करेगा कि शासन में स्थिरता कितनी है और शासन व्यवस्था कैसे चल रही है?
उन्होंने कहा, "मेरा मानना है कि निवेशकों को लोकतांत्रिक सरकार की तुलना में राजशाही में ज़्यादा रिस्क है. तब भी जब कुछ समय बाद नेपाल में गठबंधन के पार्टनर बदल जाते हैं."
ये भी पढ़ेंबीबीसी संवाददाता दिलनवाज़ पाशा ने कहा, "पूर्व राजा ज्ञानेंद्र ने 28 मार्च को हुए प्रदर्शन के बाद कोई सक्रियता नहीं दिखाई, लेकिन नेपाली नववर्ष के मौके पर एक संदेश जारी किया. इसमें उन्होंने साफ कहा कि वह नेपाल में संवैधानिक राजशाही और बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था चाहते हैं."
उन्होंने कहा, "फरवरी में उन्होंने करीब 10 मिनट का एक संदेश जारी किया था. इसमें उन्होंने मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था की ख़ामियाँ गिनाई थीं."
इस संदेश में उन्होंने कहीं न कहीं यह याद दिलाने की कोशिश की थी कि नेपाल के लिए राजशाही का दौर मौजूदा व्यवस्था से ज़्यादा बेहतर है.
नेपाल में साल 2001 में दरबार हत्याकांड में राजा बीरेंद्र बीर विक्रम सिंह शाह देव के साथ ही राजपरिवार के अधिकतम सदस्यों की हत्या हो गई थी.
इसके बाद, ज्ञानेंद्र शाह को राजा बनाया गया. संवैधानिक राजशाही के बाद साल 2005 में राजा ज्ञानेंद्र शाह ने सरकार को हटाकर पूरी तरह से सत्ता अपने हाथ में ले ली.
उनका कहना था कि माओवादियों को पूरी तरह से ख़त्म करने के लिए यह ज़रूरी है.
इसके बाद राजा के ख़िलाफ़ बड़े प्रदर्शन हुए और अंत में साल 2008 में नेपाली संसद ने राजशाही समाप्त करने का प्रस्ताव पारित किया था. इसी तरह से नेपाल एक हिंदू राष्ट्र से एक धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र बन गया.
राजा ज्ञानेंद्र के ख़िलाफ़ हुए विरोध प्रदर्शन के बाद सात राजनीतिक दलों ने मिलकर 2007 में अंतरिम सरकार का गठन किया. तब से लेकर आज तक 18 साल के समय में नेपाल में 14 सरकारें बनी हैं.
पूर्व राजा ज्ञानेंद्र की सक्रियता कैसी रही?
वरिष्ठ पत्रकार युबराज घिमिरे ने कहा, "यह बहुत कम होता कि किसी देश में गद्दी से हटाई गई राजशाही उसी देश में रहे. वह भी तब, जब प्रचंड ने यह भी कहा था कि उन्हें मृत्युदंड दिया जा सकता है. इसके बाद भी वह देश में रहे."
घिमिरे ने कहा, "संसद में राजशाही को लेकर कोई संपूर्ण बहस नहीं हो पाई. माओवादी संकल्प में भी राजशाही को बाहर रखा गया. इसके कारण अभी तक पूर्ण शांति प्रस्ताव पूरा नहीं हुआ. ऐसे में आमजन के दिमाग़ में राजशाही बनी हुई है. विजयदशमी और नए वर्ष के मौके पर वह राष्ट्र के नाम निरंतर संदेश देते रहे."
युबराज घिमिरे ने कहा कि हिंदू और बौद्ध के बीच राजशाही की सांस्कृतिक जगह यहां बनी हुई है, इसीलिए राजशाही सैद्धांतिक रूप से भी बनी हुई है.
राजनीतिक पार्टियों ने अपनी बहस में यह कहीं नहीं शामिल किया कि राजशाही के ना रहने से क्या परिणाम हो सकता है? यही परिणाम आज दिखाई दे रहा है.
घिमिरे ने कहा, "राजशाही के बाद राजनीतिक पार्टियों में जवाबदेही पूरी तरह से गायब रही और वे भ्रष्टाचार पर कोई कार्रवाई करती नज़र नहीं आती हैं. इसके कारण भी राजशाही के प्रति सहानुभूति बढ़ी है. राजशाही के समर्थक और मौजूदा व्यवस्था से नाराज़ लोग एक साथ आ गए हैं. नेपाल में इस समय तीन पार्टी के तीन लोग पूरी राजनीति चला रहे हैं. यह राजशाही से कम नहीं है."
नेपाल को लेकर भारत को क्या क़दम उठाने चाहिए?शिवम शेखावत ने कहा, "पिछले एक दशक में सत्ता कोई भी रही हो, भारत और नेपाल का ध्यान संबंधों को मज़बूत करने पर रहा है. दोनों के बीच जिन विषयों पर सहमति है, उस पर ज़्यादा ध्यान दिया जा रहा है. जैसे हाइड्रो पावर पर सहयोग."
शेखावत ने कहा, "डिजिटल कनेक्टिविटी बढ़ी है. नेपाल में भारतीय पर्यटक यूपीआई का इस्तेमाल कर सकते हैं. नेपाल के आधारभूत ढांचे के निर्माण में भी निवेश बढ़ाने के लिए भारत सहयोग दे रहा है."
शेखावत कहती हैं कि चीन के निवेश और भारत की वरीयता को लेकर प्रश्न बना रहता है, लेकिन नेपाल अब भी भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक पार्टनर है. भारत की एफडीआई भी ज़्यादा है.
शेखावत ने कहा, "भारत को व्यक्तिगत राजनीतिक संबंधों के बजाय व्यावसायिक संपर्क, क्षेत्रीय संपर्क जैसे बेसिक विषयों पर ध्यान देना चाहिए. जिस विषय को लेकर सहमति नहीं है, उसे लेकर भी बातचीत होती रहनी चाहिए. इससे रिश्तों में सुधार होगा."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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